नींव के पत्थर लक्ष्मणराव तराणेकर

मध्य प्रदेश में संघ की नींव को मजबूत करने वाले श्री लक्ष्मण मार्तण्ड तराणेकर का जन्म 30 जनवरी, 1926 को इंदौर के पास सांवेर में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा सांवेर तथा इंदौर के शिवाजीराव हाईस्कूल में हुई। इंदौर में वे जिस घर में कमरा लेकर रहते थे, वहां रहने वाले एक अन्य युवक के साथ वे रामबाग शाखा में जाने लगे। इस प्रकार उनका संघ जीवन प्रारम्भ हुआ। इसके बाद वे हरसिद्धि शाखा के गटनायक तथा मुख्यशिक्षक बने।

लक्ष्मणराव की रुचि बचपन से ही संगीत में थी। वे शाम को संगीत की कक्षा में भी जाते थे। इस कारण कुछ समय के लिए उनकी शाखा छूट गयी; पर संघ वालों ने उनसे सम्पर्क बनाये रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि वे फिर से शाखा आने लगे। उन्होंने 1943 में इंदौर से प्रथम वर्ष तथा 1947 में द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। 1952 में एम.ए. की उपाधि लेकर वे प्रचारक बन गये। उन्हें सर्वप्रथम मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल नगर में भेजा गया।

क्रमशः भोपाल, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना आदि में काम करते हुए 1968 में उन्हें ग्वालियर का विभाग प्रचारक बनाया गया। 1980 से 86 तक वे इंदौर के विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद वे प्रांत के बौद्धिक तथा संपर्क प्रमुख भी रहे। जब स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण प्रवास कठिन होने लगा, तो उन्होंने प्रत्यक्ष दायित्वों से मुक्ति ले ली।

लक्ष्मणराव सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति थे। संघ का विचार और अनुशासन उनके रक्त के कण-कण में बसा था। उनसे छोटी अवस्था वाले कार्यकर्ता को भी जब बड़़ा दायित्व मिलता था, तो उनके आने पर वे उठकर स्वागत करते थे तथा द्वार तक छोड़ने जाते थे। स्वदेशी के आग्रही होने के कारण वे कार्यालय पर कभी विदेशी कम्पनियों का सामान नहीं आने देते थे।

ऊपर से देखने पर वे सदा धीर-गंभीर और कठोर रहते थे; पर एक बार जो उनके निकट आया, वह सदा के लिए उनसे जुड़ गया। वे किसी भी काम के लिए सदा तत्पर रहते थे; पर प्रयासपूर्वक इसकी जिम्मेदारी किसी और को दिलवा कर, फिर उसके साथ लगकर काम पूरा करा देते थे।

कम से कम सामान में जीवन का निर्वाह कैसे हो सकता है, लक्ष्मणराव इसके श्रेष्ठ उदाहरण थे। आधी बांह का स्वेटर तथा एक गरम चादर में वे पूरी सर्दी काट देते थे। गर्मी में कूलर तो दूर, प्रायः वे पंखा भी नहीं चलाते थे। अपने भोजन-जलपान के प्रति उदासीन; पर दूसरों की आवश्यकता के प्रति वे सदा सजग रहते थे। किसी को सिखाने की सर्वश्रेष्ठ विधि भाषण नहीं आचरण है। इस ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। डाकघर की लापरवाही के से कई पत्रों के टिकट पर मोहर लगनी रह जाती थी। प्रायः लोग उन्हें फिर प्रयोग कर लेते हैं; पर लक्ष्मणराव उन्हें कलम से काट देते थे।

कार्यकर्ता सक्रिय हो निष्क्रिय, लक्ष्मणराव सबसे संपर्क बनाये रखते थे। जब ग्वालियर में संघ कार्यालय का भवन बना, तो उन्होंने सैकड़ों पुराने और ग्वालियर से बाहर रह रहे कार्यकर्ताओं को पत्र लिखे। अतः सम्पूर्ण राशि का दो तिहाई ऐसे लोगों से ही मिल गया।

बड़े कार्यक्रम की बजाय छोटे कार्यक्रमों की ओर उनका अधिक रुझान था। वे कार्यकर्ता को ठोक बजाकर जिम्मेदारी देते थे। अतः उन्होंने जिसे जो काम दिया, उसने वह पूरा किया। सामूहिक चिंतन एवं निर्णय की संघ पद्धति का उन्होंने सदा पालन किया।

नींव के पत्थर की तरह प्रचार, प्रसिद्धि, माला और मंच से दूर रहने वाले लक्ष्मणराव का 27 अक्तूबर, 2006 को ग्वालियर में ही देहांत हुआ।


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