शतायु प्रचारक धनप्रकाश त्यागी



शतायु प्रचारक धनप्रकाश त्यागी 


सौ साल का जीवन सबको नहीं मिलता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के लिए तो यह और भी कठिन है। जब तक वह प्रत्यक्ष कार्य में रहता है, तब तक लगातार प्रवास के कारण उसकी दिनचर्या और खानपान काफी अनियमित रहता है। जवानी की भागदौड़ में तो इसका पता नहीं लगता; पर फिर वह कई गंभीर रोगों से घिर जाता है। इसके अपवाद रहे श्री धनप्रकाश त्यागी, जिन्होंने ‘जीवेत शरदः शतम्’ के वेदवाक्य को पूरा किया।

धनप्रकाशजी का जन्म 10 जनवरी, 1918 को उ.प्र. राज्य के मुजफ्फरनगर जिले में स्थित गांव मेहपुरा में में हुआ था। उन दिनों किसान परिवारों में पढ़ाई का कुछ विशेष माहौल नहीं था। फिर भी उन्होंने विज्ञान विषय के साथ उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी की। इससे उन्हें दिल्ली में केन्द्र सरकार के एक कार्यालय में लिपिक की नौकरी मिल गयी। उन्होंने 1942 में प्राथमिक तथा 43, 44 और 47 में क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्गों का प्रशिक्षण लिया। स्वाधीनता सेनानियों में विशेषकर लोकमान्य तिलक की जीवनी पढ़कर वे बहुत प्रभावित हुए। 

आजादी से पहले दिल्ली में मुस्लिम गुंडे हिन्दुओं को बहुत परेशान करते थे। संघ के युवा स्वयंसेवक उन्हें जैसे का तैसा जवाब देते थे। इससे प्रभावित होकर धनप्रकाशजी 1942 में मिंटो रोड पर रेलवे क्वार्टस में लगने वाली शाखा पर जाने लगे। उन दिनों उ.प्र. का पश्चिमी भाग दिल्ली के साथ जुड़ा था। श्री वसंतराव ओक वहां प्रांत प्रचारक थे। धनप्रकाशजी की सक्रियता और संघ विचार के प्रति निष्ठा देखकर एक दिन वसंतराव ने उनसे पूछा कि क्या संघ के काम के लिए बाहर जा सकते हो ? धनप्रकाशजी ने हां कह दिया। इस प्रकार उनके प्रचारक जीवन की यात्रा प्रारम्भ हो गयी। इसके बाद उन्होंने अपने दफ्तर जाना बंद कर दिया और सरकारी नौकरी से भी त्यागपत्र दे दिया।

कुछ समय दिल्ली में विस्तारक रहने के बाद वे उ.प्र. में सहारनपुर और अलीगढ़; हरियाणा में अंबाला, हिसार और गुरुग्राम; पंजाब में होशियारपुर; हिमाचल प्रदेश में शिमला आदि स्थानों पर नगर और जिला प्रचारक रहे। अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों की गुंडागर्दी चलती थी। स्वयंसेवकों ने उनके नेतृत्व में कई बार उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। धनप्रकाशजी ने 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध सत्याग्रह कर जेल यात्रा की। 1962 से 65 तक वे जम्मू और फिर 65 से 71 तक राजस्थान में जयपुर विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद 1986 तक उन्होंने राजस्थान में भारतीय मजदूर संघ में काम किया। उन दिनों मजदूरों में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट संगठनों का बोलबाला था; पर उनके प्रयास से स्थिति बदलने लगी। शरीर ढलने पर उन्हें विद्या भारती, सेवा भारती तथा फिर जयपुर से प्रकाशित जागरण पत्रक की जिम्मेदारी दी गयी। 

धनप्रकाशजी को संगठन ने जो भी काम दिया, वह उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर उसमें संख्यात्मक और गुणात्मक वृद्धि की। वयोवृद्ध होने पर उन्हें सब जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया। फिर भी वे संघ कार्य से उदासीन नहीं रहे। जयपुर कार्यालय पर पूरे राज्य से कार्यकर्ता आते थे। धनप्रकाशजी सबसे बड़ी रुचि से मिलते थे। बुजुर्ग होने पर भी वे खूब स्वाध्याय करते थे। अतः देश के ज्वलंत मुद्दों पर उनकी जानकारी अद्यतन रहती थी। स्वयं लिखे धर्म के दस लक्षण वाले एक पत्रक की फोटो प्रति बनाकर वे लोगों को देते रहते थे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार को तो उन्होंने नहीं देखा; पर बाकी पांच सरसंघचालकों के दर्शन एवं उनके साथ काम करने को वे अपना सौभाग्य मानते थे।

संयमित खानपान, नियमित व्यायाम और प्राणायाम से वे अंत तक काफी स्वस्थ रहे। प्रातःकाल वे नीम का कड़वा पानी जरूर पीते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं ही करते थे। आठ जनवरी, 2017 को उनके सौवें वर्ष में जयपुर में संघ कार्यालय पर रुद्राभिषेक यज्ञ कर लोगों ने उन्हें स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की शुभकामनाएं दीं। 24 जनवरी, 2020 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

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