सिन्ध का क्रांतिवीर हेमू कालाणी


अंग्रेजों के शासनकाल में भारत का कोई प्रान्त सुरक्षित नहीं था। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सब ओर उनके अत्याचारों से लोग त्रस्त थे; पर जेल और फाँसी के भय से उनके विरुद्ध खड़े होने का साहस कम ही लोग दिखा पाते थे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे हेमू कालाणी, जिनका जन्म अविभाजित भारत के सिन्ध प्रान्त के सक्खर नगर में 11 मार्च, 1924 को हुआ था।


जहाँ एक ओर शासन के अत्याचार चरम पर थे, तो दूसरी ओर गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन भी चल रहा था। सत्याग्रहियों पर अंग्रेज पुलिस डण्डे बरसाती और गोली चलाती थी। फिर भी वे शान्त रहते थे। शासन से असहयोग और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही इनका एकमात्र शस्त्र था। वन्दे मातरम् और भारत माता की जय उनका प्रमुख नारा था।

दूसरी ओर एक धारा क्रान्तिकारियों की थी, जो शस्त्रों के बल पर अंग्रेजों को जबरन अपनी मातृभूमि से खदेड़ना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि हथियारों के बल पर राज करने वालों को हथियारों की ताकत से ही भगाया जा सकता है। यों तो पूरे देश में इस विचार को मानने वाले युवक थे; पर बंगाल और पंजाब इनके गढ़ थे। हेमू भी इसी विचार का समर्थक था। इन वीर क्रान्तिकारियों की कहानियाँ वह अपने मित्रों को सुनाता रहता था।

एक बार हेमू को पता लगा कि गोरे सैनिकों की एक पल्टन विशेष रेल से सक्खर की ओर से गुजरने वाली है। यह पल्टन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के सत्याग्रहियों के दमन के लिए भेजी जा रही थी। हर दिन ऐसे समाचार प्रकाशित होते ही थे। हेमू गांधीवादी सत्याग्रह में विश्वास नहीं रखते थे।

उनसे यह नहीं सहा गया कि विदेशी सैनिक भारतीयों पर अत्याचार करें।
उन्होंने अपने कुछ मित्रों को एकत्र किया। उन्होंने सोचा कि यदि हम रेल की पटरियाँ उखाड़ दें, तो रेल दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगी। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे जायेंगे और अपने देशवासियों की रक्षा होगी।

इस योजना को सुनकर कुछ साथी डर गये; पर नन्द और किशन नामक दो युवक तैयार हो गये। तीनों हथौड़े, गंेती, सब्बल आदि लेकर सक्खर की बिस्कुट फैक्ट्री के पास एकत्र हुए। रेल लाइन उसके पास में ही थी।

उस समय चाँदनी रात थी। तीनों युवक तेजी से अपने काम में जुट गये। वे मस्ती में गीत गाते हुए निर्भयतापूर्वक अपने काम में लगे थे; पर दूसरी ओर प्रशासन भी सावधान था। उसने उस रेलगाड़ी की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से कुछ सिपाही तैनात कर रखे थे। उन सिपाहियों ने जब कुछ आवाज सुनी, तो वे दौड़ पड़े और तीनों को पटरी उखाड़ते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया।

न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया गया। हेमू तो आत्मबलिदान के लिए तत्पर ही थे। उन्होंने अपने दोनों साथियों को बचाने के लिए इस कांड की पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायालय ने उसे फाँसी की सजा सुनायी। 23 जनवरी, 1943 को 19 वर्ष की सुकुमार अवस्था में यह क्रान्तिकारी हँसते हुए फाँसी पर चढ़ गया। उस समय उनके चेहरे का तेज देखते ही बनता था।

हेमू कालाणी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वह आजादी के दीवानों के लिए चिंगारी बन गये। सिन्ध के घर-घर में उसकी कथाएँ कही जाने लगीं। आज तो सिन्ध प्रान्त भारत में ही नहीं है; पर वहाँ से भारत आये लोग हेमू का स्मरण सदा करते हैं।

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