आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज


इस जगत् में अपने लिए तो सब ही जीते हैं; पर अमर वही होते हैं, जो निजी जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन को अधिक महत्त्व देते हैं। 1876 में सिन्ध प्रान्त (वर्त्तमान पाकिस्तान) के एक सम्भ्रात परिवार में जन्मे श्री लेखराज ऐसे ही एक महामानव थे, जिन्होंने आगे चलकर ब्रह्मकुमारी नामक एक महान आध्यात्मिक आन्दोलन की स्थापना की।


लेखराज जी का बचपन से ही अध्यात्म की ओर आकर्षण था। इसलिए लोग इन्हें दादा (बड़ा भाई) कहने लगे। बालपन में ही पिताजी का देहान्त हो जाने से इन्हें छोटी अवस्था में ही कारोबार करना पड़ा। इन्होंने हीरे-जवाहरात का व्यापार किया। मधुर स्वभाव और प्रामाणिकता के कारण इनका व्यापार कुछ ही समय में भारत के साथ विदेशों में भी फैल गया।

पर इसके साथ ही इनके मन में यह चिन्तन भी चलता रहता था कि व्यक्ति को कष्ट क्यों होते हैं तथा वह इन कष्टों और निर्धनता से कैसे मुक्त हो सकता है ? इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में 12 गुरुओं का आश्रय लिया; पर इन्हें किसी से आत्मिक सन्तुष्टि नहीं मिली। 60 वर्ष की अवस्था में वाराणसी में अपने एक मित्र के घर पर इन्हें कुछ विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुईं, जिससे इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

दादा लेखराज ने देखा कि इस कलियुगी दुनिया का महाविनाश होने वाला है और इसमें से ही एक नयी दुनिया का निर्माण होगा। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके तन और मन में ईश्वरीय शक्ति का आगमन हुआ है। उस शक्ति ने दादा को उनके अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए। इस परमशक्ति ने उन्हें ही नयी दुनिया के निर्माण के लिए केन्द्र बिन्दु बनने को कहा तथा उनका नाम बदल कर प्रजापिता ब्रह्मा रख दिया। उस शक्ति ने इस काम में नारी शक्ति को आगे रखने का भी आदेश दिया।

अब दादा ने उस परमसत्ता का आदेश मानकर काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने ‘ओम मण्डली’ का गठन किया। ईश्वरीय शक्ति ने उनकी सभी उलझनों को मिटा दिया था। नारियाँ स्वभाव से कोमल होती हैं। दादा ने उन्हें भौतिक विद्याओं से दूर हटाकर राजयोग की शिक्षा दी। इससे उनमें छिपी शक्तियाँ उजागर होने लगीं। दादा ने किसी धर्म या पन्थ का विरोध न करते हुए सबको अध्यात्म और सत्य का सरल ज्ञान कराया। इससे आसुरी शक्तियों का शमन होकर दैवी शक्तियों का जागरण हुआ।

दादा की मान्यता थी कि स्व परिवर्तन से ही विश्व में परिवर्तन होगा। जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तो दादा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस संस्था में महिलाएँ अधिक सक्रियता से जुड़ीं, अतः दादा पर अनेक ला॰छन लगाये गये; पर वे इन सबकी चिन्ता न करते हुए अपने काम में लगे रहे। वस्तुतः उन्होंने हीरे जवाहरात के व्यापार के बदले मनुष्यों के अन्दर छिपे गुणों को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य संभाल लिया था।

1947 में देश विभाजन के बाद दादा ने राजस्थान में आबू पर्वत को अपनी गतिविधियोें का केन्द्र बनाया। यहीं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जैसी संस्था का जन्म हुआ। श्वेत वस्त्रधारी बाल ब्रह्मचारी बहिनों को आगे रखकर चलने वाली यह संस्था आज विश्व के 130 देशों में काम कर रही है। 18 जनवरी, 1969 को दादा लेखराज ने अपनी देहलीला समेट ली; पर उनके अनुयायी उनकी दैवी उपस्थिति सब जगह अनुभव करते हैं।

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