ईरंकि सुब्रह्मण्यम का असमय अवसान


यों तो जो भी प्राणी इस धरा पर जन्मा है, उसे एक दिन जाना ही होता है; पर भरपूर युवावस्था में यदि कोई चला जाए, तो उसका कष्ट मन को सदा बना रहता है। श्री ईरंकि सुब्रह्मण्यम ऐसे ही प्रचारक थे।


श्री सुब्रह्मण्यम का जन्म आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले में स्थित अमलापरुम् नगर में हुआ था। उनके पिता श्री माधव शास्त्री संघ कार्य में सक्रिय थे। सहकारी बैंक में नौकरी करते हुए वे अनेक वर्ष राजमुंदरी के नगर कार्यवाह रहे। अतः संघ के संस्कार श्री सुब्रह्मण्यम को घर में ही प्राप्त हुए।

अमलापुरम् से बी.एस-सी. कर वे विशाखापट्टनम् आ गये। इसी बीच उन्होंने द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया। 1977 में रसायन शास्त्र में एम.एस-सी. कर उन्होंने प्रचारक के रूप में काम करने का निर्णय लिया। प्रारम्भ में उन्हें अनकापल्ली तथा एलमंचेली तहसीलों का काम दिया गया। अगले ही वर्ष वे वारंगल महानगर प्रचारक बनाये गये। पांच वर्ष यहां काम करने के बाद अगले तीन साल वे पूर्व गोदावरी जिले के प्रचारक रहे। इसके बाद वे गुंटूर जिला और फिर गुंटूर विभाग प्रचारक रहे। 1999 में प्रांत बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी मिलने पर पूरे प्रांत में उनका प्रवास होने लगा।

श्री सुब्रह्मण्यम की शारीरिक और बौद्धिक दोनों विभागों में समान रुचि थे। योगचाप शिक्षण उनका प्रिय विषय था। वे छह वर्ष तक अपने प्रांत में प्रथम वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में मुख्य शिक्षक रहे। वे आग्रहपूर्वक संस्कृत बोलते, लिखते और सिखाते थे। उन्हें देखकर कई स्वयंसेवकों ने भी संस्कृत का अच्छा अभ्यास कर लिया। बौद्धिक कार्यक्रमों की योजना बनाने में भी वे बहुत निपुण थे।

श्री सोमैया जी 30 वर्ष तक आंध्र के प्रांत प्रचारक रहे। श्री सुब्रह्मण्यम पर उनका सर्वाधिक प्रभाव था। वे नियमपालन में बहुत कठोर थे। व्यवस्थित जीवन तथा व्यवस्थित कार्य उनकी विशेषता थी। शाखा, संख्या तथा कार्यक्रमों का वृत्त देने में वे शत-प्रतिशत सत्य बोलने में विश्वास रखते थे।

9 जनवरी, 2000 को वे विजयवाड़ा में स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि सामने आते एक ट्रक से उनकी भीषण टक्कर हो गयी। इससे उनके दोनों टांगें बुरी तरह कुचल गयीं। तुरंत उनको अस्पताल ले जाया गया। वहां उनकी हालत देखकर चिकित्सक भी आश्चर्यचकित रह गये।

बुरी तरह घायल होने पर भी वे सबसे बातचीत कर रहे थे। उनका मनोबल तब भी बहुत ऊंचा था। वे स्वस्थ होने के बाद प्रान्त में प्रवास की योजना बना रहे थे। साथ ही प्रचारकों को अपने कार्यक्षेत्र में क्या सावधानियां रखनी चाहिए, इसकी चर्चा भी कर रहे थे।

परन्तु धीरे-धीरे उनके शरीर में जहर फैलने लगा। इससे उनके सब अंग बेकार हो जाने का डर था। अतः चिकित्सकों ने उनकी दोनों टांग काटने का निर्णय लिया। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने दिल पर पत्थर रखकर इसकी अनुमति दे दी। श्री सुब्रह्मण्यम अत्यधिक साहसी थे। उन्होंने पूरी तरह बेहोश होने के बदले केवल निचले हिस्से को सुन्न कर ही यह शल्य क्रिया पूरी कराई।

लेकिन इसके बाद भी उनकी हालत बिगड़ती गयी। अतः उन्हें भाग्यनगर (हैदराबाद) के निजाम आयुर्विज्ञान संस्थान में ले जाने का निर्णय किया गया; पर विधि को कुछ और ही स्वीकार था। 20 जनवरी, 2000 को विजयवाड़ा से भाग्यनगर की ओर जाते हुए मार्ग में ही उनका शरीरांत हो गया।

स्वर्गीय श्री सुब्रह्मण्यम की स्मृति में शासकीय विद्यालय, अमलापुरम् के अनुसूचित जाति छात्रावास में एक विशाल कक्ष का निर्माण किया गया है।

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