रामभक्त लक्ष्मण माधव देशपांडे

       


रामभक्त लक्ष्मण माधव देशपांडे 


संघ में कई कार्यकर्ता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने मार्ग की बाधाओं को धैर्यपूर्वक पार कर संघ कार्य किया है। श्री लक्ष्मण माधव देशपांडे ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। उनका प्रचलित नाम बाबूराव देशपांडे था। उनका जन्म 11 दिसम्बर, 1913 को ग्राम मंगरूल दस्तगीर (जिला अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। कक्षा आठ तक की शिक्षा उन्होंने अपनी बड़ी बहिन के पास आर्वी में रहकर पायी थी। वहीं उनका साक्षात्कार संघ के संस्थापक पूज्य डा0 हेडगेवार से हुआ।


आगे पढ़ने के लिए वे नागपुर आ गये तथा वहां धंतोली शाखा में जाने लगे। वहां श्री मोरोपंत पिंगले से वे बहुत प्रभावित हुए। 1938 में उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। उनकी इच्छा प्रचारक बन कर संघ कार्य करने की थी; पर उसी वर्ष उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर में सबसे बड़े होने के कारण पूरे परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गयी।


बाबूराव के छोटे भाई नेत्रहीन थे; पर कुछ समय बाद उन्हें नागपुर में एक नौकरी मिल गयी और पूरा परिवार नागपुर आ गया। घर की स्थिति सुधरते ही 1941 में उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार प्रचारक बनकर घर छोड़ दिया। 


उन्हें वर्धा जिले का प्रचारक नियुक्त किया गया। 1945 में उन्हें बिहार भेजा गया। वहां छपरा, आरा, छोटा नागपुर आदि में उन्होंने 10 वर्ष तक काम किया। बिहार के बाद उन्हें उड़ीसा में संबलपुर विभाग प्रचारक का दायित्व मिला। श्री गुरुजी के प्रवास के समय वहां बाबूराव ने बहुत सुंदर रेखांकन किया। इस पर श्री गुरुजी ने कहा, लगता है संबलपुर में वर्धा अवतीर्ण हो गया है।


1964 में राउरकेला के जातीय दंगों में वे तीन मास तक जेल में और फिर तड़ीपार रहे। वहां वे अपना भोजन स्वयं बनाते थे। मराठी भोजन का आनंद लेने के लिए कभी-कभी जेल के अधिकारी भी उसमें सहभागी हो जाते थे। आपातकाल में भी वे संबलपुर जेल में रहे। इसके बाद वे पुरी विभाग प्रचारक, प्रांत संपर्क प्रमुख और फिर कटक के प्रांतीय कार्यालय पर भी रहे। उत्कल में उन दिनों संघ का काम प्रारम्भिक स्थिति में था। परिवारों में भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। ऐसे में वे अपने तथा कार्यालय में उपस्थित सभी लोगों के लिए रुचिपूर्वक मराठी शैली का भोजन बनाते थे। 


1967 में उड़ीसा में पहली बार अलग से संघ शिक्षा वर्ग करने की अनुमति मिली; पर केन्द्रीय अधिकारियों की शर्त थी कि संख्या 100 से कम न रहे। बाबूराव के विभाग में स्थित झारसुगड़ा में यह वर्ग हुआ। उनकी देखरेख में व्यवस्था तो अच्छी थी ही; पर संख्या का लक्ष्य भी पूरा हुआ। 


उस वर्ग में एक बार भारी वर्षा से बौद्धिक पंडाल गिर गया; पर बाबूराव ने रात भर परिश्रम कर उसे फिर से खड़ा किया तथा गीली भूमि पर चूना डालकर उसे बैठने लायक बना दिया। इसके बाद भी उन्होंने विश्राम लिये बिना अगले दिन के सब निर्धारित कार्यक्रम पूरे किये।


श्री रामजन्मभूमि के लिए हुई प्रथम कारसेवा में वे काफी वृद्ध होने के बावजूद अपने गांव मंगरूल से अयोध्या तक पैदल गये। पूछने पर वे कहते थे - श्री राम से मिलने के लिए जाना लक्ष्मण का स्वाभाविक कर्तव्य है। 


उड़ीसा के प्रथम प्रांत प्रचारक श्री बाबूराव पालधीकर के देहांत के बाद वे नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय, डा0 हेडगेवार भवन में आ गये। 96 वर्ष की आयु में 14 मई, 2009 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र दान कर दिये गये। बाबूराव देशपांडे स्वभाव से व्यवस्था प्रिय तथा स्वावलम्बी थे। वे सदा शुभ्र वेष पहनते थे। उन्होंने जीवन भर स्वदेशी व्रत का पालन किया। उड़ीसा के कार्यकर्ताओं पर उनके व्यवहार और कार्यशैली की अमिट छाप है। 


(संदर्भ  : श्री अरविंद चौथाइवाले)

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